स्थलमंड का विकास
ग्रहाणु
व दूसरे खगोलीय पिंड ज्यादातर एक जैसे ही घने और हल्के पदार्थों के मिश्रण से बने
हैं। उल्काओं के अध्ययन से हमें इस बात का पता चलता है। बहुत से ग्रहाणुओं के
इकट्ठा होने से ग्रह बनें। पृथ्वी की रचना भी इसी प्रक्रम के अनुरूप हुई है। जब पदार्थ गुरूत्वबल के कारण संहत हो रहा था, तो उन
इकट्ठा होते पिंडो ने पदार्थ को प्रभावित किया। इससे अत्यधिक ऊष्मा उत्पन्न हुई।
यह क्रिया जारी रही और उत्पन्न ताप से पदार्थ पिघलने/गलने लगे ऐसा पृथ्वी की
उत्पत्ति के दौरान और उत्पत्ति के तुरंत बाद हुआ। अत्यधिक ताप के कारण, पृथ्वी आंशिक रूप से द्रव अवस्था में रह गई और तापमान की अधिकता के कारण ही
हल्के और भारी घनत्व के मिश्रण वाले पदार्थ घनत्व के अंतर के कारण अलग होना शुरू
हो गए। इसी अलगाव से भारी पदार्थ (जैसे लोहा) पृथ्वी के केन्द्र में चले गए और
हल्के पदार्थ पृथ्वी की सतह या ऊपरी भाग में आ गए। समय के साथ यह और ठंडे हुए
और ठोस रूप में परिवर्तित होकर छोटे आकार के हो गए। अंततोगत्वा यह पृथ्वी की
भूपर्पटी के रूप मे विकसित हो गए। हल्के और भारी घनत्व वाले पदार्थों के पृथक होने
की इस प्रक्रिया को विभेदन कहा जाता है। चंद्रमा की उत्पत्ति के दौरान, भीषण संघट्ट के कारण, पृथ्वी का तापमान पुनः बढा और यह
विभेदन का दुसरा चरण था। विभेदन की इस प्रक्रिया द्वारा पृथ्वी का पदार्थ अनेक
परतों में अलग हो गया। पृथ्वी के धरातल से क्रोड तक कई परतें पाई जाती हैं। जैसें-
पर्पटी,प्रावार,बाह्य क्रोड और आंतरिक क्रोड पृथ्वी के ऊपरी भाग से
आंतरिक भाग तक पदार्थ का घनत्व बढ़ता है।
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